हाइलाइट्स
ये योजना सबसे पहले 50 के दशक में तमिलनाडु के तिरुनेलवेली के एक स्कूल में शुरू की गई
जब तमिलनाडु के स्कूल में दोपहर में बच्चों को खाना दिया जाने लगा तो उनकी संख्या दोगुनी हो गई
चेन्नई के मरीना बीच पर कामराज की एक मूर्ति खड़ी है, जिसके दोनों ओर दो किशोर छात्र खड़े हैं. मद्रास राज्य (अब तमिलनाडु) के मुख्यमंत्री के रूप में कामराज के योगदान को आज भी तमिलनाडु में बहुत सराहा जाता है. चेन्नई ही नहीं पूरे तमिलनाडु में आप गांधी और नेहरू से ज्यादा प्रतिमाएं शायद कामराज की पाएंगे. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद उस समय की भारतीय राजनीति में बहुत ताकतवर शख्सियत बन गए थे. उन्हें “किंगमेकर” के रूप में जाना जाने लगा.
वैसे मरीना बीच पर लगी उनकी प्रतिमा ये याद दिलाती है कि राज्य की शिक्षा के लिए उन्होंने बहुत खास किया. ये उन्हीं का मुख्यमंत्री का कार्यकाल था जिसकी वजह से उस दशक में तमिलनाडु की शिक्षा दर को 85 प्रतिशत तक बढ़ गई. इसके लिए हर कोई उनके काम को याद करता है.
जब कामराज ने 13 अप्रैल 1954 को मद्रास राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में सीट संभाली, तो उन्होंने हर गरीब और जरूरतमंद को शिक्षा का बीड़ा उठाया. उन्होंने अनिवार्य शिक्षा की नीति बनाई. नए स्कूल बनवाए. स्कूल आने वाले छात्रों को मुफ्त में यूनिफॉर्म दी गई. पाठ्यक्रम में संशोधन किया गया. अपने इन कामों से कामराज ‘शिक्षा के जनक’ के रूप में लोकप्रिय हो गए.
बात यहां से शुरू हुई
1960 के दशक की शुरुआत में तिरुनेलवेली जिले के चेरनमहादेवी शहर का दौरा करते समय, कामराज ने एक लड़के को रेलवे क्रॉसिंग पर मवेशी चराते हुए देखा. तब उन्होंने उससे पूछा वह ऐसा क्यों कर रहा है, स्कूल क्यों नहीं जाता. आपको यहां ये याद दिला दें कि ये तिरवनेलवेली जिला वही है, जहां अभी दिसंबर के दूसरे हफ्ते में दो दिन में इतनी भीषण बारिश हुई, जो पूरे सालभर नहीं होती और यहां त्राहि त्राहि मच गई.
कामराज ने बच्चों को स्कूल तक ले जाने को लेकर तमिलनाडु में बहुत काम किया. (फाइल फोटो)
अगर मैं स्कूल जाऊं तो क्या आप मुझे खाना देंगे
कामराज के सवाल के जवाब में इस लड़के ने उल्टे सवाल कर दिया, “अगर मैं स्कूल जाऊं तो क्या आप मुझे खाने के लिए खाना देंगे? मैं तभी सीख सकता हूं जब मैं खाऊंगा,” और लड़के के इन शब्दों में कामराज को उस काम को करने को प्रेरित किया जो आने वाले समय में पूरे देश के प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को पढ़ाई के लिए खींचने वाली खास योजना बनने वाली थी, जिसे हम मिड -डे मील के तौर पर जानते हैं.
कामराज को स्कूल छोड़ना पड़ा था
कामराज का जन्म एक व्यापारी परिवार में हुआ था. उनके पिता के निधन के बाद मां को गुजारा करने के लिए संघर्ष करना पड़ा. 11 साल की छोटी उम्र में, कामराज को मां का सहयोग करने के लिए स्कूल छोड़ना पड़ा. तभी से वह चाहते थे कि उनकी तरह दूसरे बच्चों को स्कूल नहीं छोड़ना पड़े और वो सभी स्कूल जरूर जाएं.
जानते थे कि क्या होती है शिक्षा की अहमियत
कामराज को पूरी तरह अंदाज था कि शिक्षा का जीवन में क्या महत्व होता है. हालांकि ये बात सही है कि उन दिनों शिक्षा किसी गरीब परिवार के लिए विलासिता की तरह थी. और जिस परिवार में खाने के लिए कुछ नहीं होता हो, घोर गरीबी हो, वो अपने बच्चे को कैसे पढ़ने के लिए स्कूल भेजे. तब उन्हें ये महसूस हुआ कि अगर स्कूल में एक टाइम का ठोस भोजन दिया जाए तो बहुत से बच्चे स्कूल आएंगे और पढ़ने के लिए प्रेरित होंगे.
मिड-डे मील से स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ गई
मिड-डे मील स्कूल योजना को लागू करने के बाद जब उन्होंने इसके बारे में जानना शुरू किया तो नतीजे बहुत शानदार थे. 1955 में मद्रास नगर पालिका के स्कूलों और हरिजन कल्याण स्कूलों में इस योजना के कारण छात्रों की मौजूदगी बढ़ गई थी. बच्चे सोमवार से शुक्रवार तक खूब आने लगे थे. लेकिन शनिवार को छात्रों की उपस्थिति आधी हो जाती थी, क्योंकि शनिवार के दिन स्कूल केवल आधे दिन के लिए खुलते थे, इसलिए दोपहर का भोजन उपलब्ध नहीं कराया गया था.
योजना आयोग इस योजना के लिए राजी नहीं था
जब कामराज ने मिड डे मील को दूसरी पंचवर्षीय योजना (एसएफवाईपी) में शामिल कराना चाहा तो ये आसान नहीं था. सभी प्राथमिक विद्यालय के छात्रों के लिए मध्याह्न भोजन को केंद्रीय योजना आयोग बहुत व्यावहारिक नहीं मान रहा था.
लेकिन कामराज इसको लागू कराने के लिए दृढ़ता से अड़ गए. उन्होंने योजना आयोग के अधिकारियों से उसी तरह बात की कि वो इसे राज्य में लागू करने के लिए योजना को हरी झंडी दें. उपलब्ध और आवश्यक धनराशि के बीच का अंतर पांच करोड़ (50 मिलियन रुपये) था.
हालांकि, कामराज मध्याह्न भोजन कार्यक्रम को लागू करने के लिए एक नया कर लगाने के लिए तैयार थे. काफी समझाने के बाद एसएफवाईपी में फंडिंग के लिए मध्याह्न भोजन कार्यक्रम को शामिल किया गया. तमिलनाडु के विधानमंडल ने भी इस कार्यक्रम को मंजूरी दे दी.
कामराज को स्कूलों में मिड-डे मील योजना के लिए प्लानिंग कमीशन से बजट लेने बहुत मेहनत करनी पड़ी.
तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले में पहली बार शुरू हुई
27 मार्च, 1955 को इस योजना के संबंध में एक घोषणा की गई. 17 जुलाई 1956 को तिरुनेलवेली जिले के एट्टायपुरम में मिड डे मील कार्यक्रम शुरू किया गया. 01 नवंबर, 1957 से कामराज सरकार ने केंद्र सरकार के वित्त पोषण का उपयोग करके अधिक से अधिक प्राथमिक विद्यालयों को शामिल करने के लिए कार्यक्रम का विस्तार दिया.
सरकारी योगदान के साथ स्वयंसेवी मदद भी
इसमें तब सरकार का योगदान सिर्फ 10 पैसे प्रति बच्चा था, स्थानीय अधिकारियों से 05 पैसे के योगदान की संभावना थी, जो ज्यादातर नहीं हो पाती थी. इसके चलते इस कार्यक्रम को लगातार चलाने के लिए स्वयंसेवक योगदान का सहारा लेना होता था.
कामराज ने पूरे राज्य में बड़े पैमाने पर यात्रा की. सम्मेलनों, बैठकों और यहां तक कि व्यक्तिगत चर्चाओं के दौरान जनता से बात की. उन्होंने जोर दिया कि मध्याह्न भोजन योजना को जल्द से जल्द स्कूलों में लागू करने की जरूरत है. अपने समाज के बच्चों को खाना खिलाना एक व्यक्तिगत सामाजिक जिम्मेदारी भी है.
मिड-डे मील लागू करने के लिए हर स्कूल में समितियां बनीं
स्थानीय लोगों ने धन और वस्तुओं का प्रभावी ढंग से उपयोग करने के लिए समितियों को संगठित और स्थापित किया. इन समितियों के गैर-सदस्य सचिव आमतौर पर स्कूलों के प्रधानाध्यापक होते थे. स्थानीय समितियों बरतन जैसे सामानों की पूरी लागत वहन करती थीं.
पका हुआ चावल, सांबर, दही और अचार
कामराज की योजना के तहत, कक्षा 01 से 08 तक के लगभग 20 लाख प्राथमिक विद्यालय के छात्रों को प्रत्येक वर्ष 200 दिनों के लिए भोजन दिया जाता था. इसमें बच्चे पके हुए चावल और सांबर के साथ छाछ या दही और अचार के साथ स्वादिष्ट भोजन पाते थे.
फिर अमेरिकी संस्था मदद के लिए आगे आई
जुलाई 1961 से, ‘कोऑपरेटिव अमेरिकन रिलीफ एवरीव्हेयर’ (CARE) ने सरकार के इस मिड-डे मील प्रोग्राम में जुड़ना मंजूर किया. इसमें ये संस्था आर्थिक तौर पर मदद करने लगी. उन्होंने खाद्य आपूर्ति, जैसे दूध पाउडर, खाना पकाने का तेल, गेहूं, चावल और अन्य पोषण संबंधी सामान की आपूर्ति शुरू कर दी.
05 बरसों में ही ये योजना हिट हो चुकी थी
हालांकि शुरुआत में इसे एक लोकलुभावन रणनीति के रूप में देखा गया, लेकिन जैसे-जैसे स्कूल में नामांकन और उपस्थिति बढ़ी. तब मिड-डे मील योजना ने जोर पकड़ लिया. आखिरकार केंद्र सरकार ने भी इसे समर्थन देना शुरू कर दिया. केवल 05 वर्षों में ही ये योजना सफल हो चुकी थी. 1957 और 1963 के बीच इसका खर्च 17 गुना बढ़ गया, जिससे इसका फायदा उठाने वाले बच्चों की संख्या में भी 06 गुना बढोतरी हुई.
बच्चों का स्वास्थ्य भी बेहतर हुआ और पढ़ाई भी
कम आय वाले परिवारों के जिन बच्चों को स्कूल से बाहर रखा गया, उन्होंने स्कूल जाना शुरू कर दिया, क्योंकि इससे बच्चे के लिए रोज कम से कम एक टाइम पौष्टिक भोजन सुनिश्चित हो गया. अब स्कूल छोड़ने वाले बहुत कम हो गए. बच्चों का स्वास्थ्य भी बेहतर हुआ और पढ़ाई भी.
और बच्चों के साथ बैठने से ये भी हुआ
मिड-डे मील योजना ने बच्चों में एकता भी बढ़ाई. अलग अलग पृष्ठभूमियों के बच्चे एक साथ बैठते थे. एक साथ एक ही तरह का भोजन करते थे. कुछ हद तक इसने युवा लोगों के मन में जाति की सीमाओं के उन्मूलन को बढ़ावा दिया.
अब ये दुनिया का सबसे बड़ा आहार कार्यक्रम
कामराज की मिड-डे मील योजना हिट थी. एम.जी. रामचन्द्रन ने 1982 में मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान इसे और बढ़ाया. फिर जल्द ही केंद्र सरकार ने इसे अपनाया और ये देश के अन्य राज्यों तक भी पहुंच गई. यह अब दुनिया का सबसे बड़ा स्कूली बच्चों का आहार कार्यक्रम है, जो 12 लाख स्कूलों में 11 करोड़ बच्चों को भोजन देता है.
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Tags: Government Primary School, Mid Day Meal, Mid Day Meal Scheme, Tamil nadu
FIRST PUBLISHED : December 24, 2023, 09:36 IST