



असग़र नदीम सैयद पाकिस्तान के चर्चित कथाकार, नाटककार और शायर हैं. उनका जन्म 14 जनवरी, 1950 को पाकिस्तान के मुल्तान में हुआ था. उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी, लाहौर से उर्दू भाषा में मास्टर डिग्री हासिल की. उन्होंने पाकिस्तानी टेलीविजन के लिए कई धारावाहिक लिखे हैं. उनका लिखा नाटक ‘चंद्र ग्रहण’ बहुत ही चर्चित रहा है. उन्होंने ‘निजात’ और ‘हावैन’ (Hawain) जैसे पॉपुलर सीरियल भी लिखे हैं.
असगर नदीम सैयद की कुछ कहानियों का हिंदी तर्जुमा मोहम्मद मूसा रज़ा ने किया है. ऐसी ही एक कहानी है ‘हमारा हीरो वापस करो’. इसमें पाकिस्तान को एक हीरो की तलाश है जिसके नाम पर मिसाइल और हथियार बनाए जा सकें. इसके लिए समाज के अलग-अलग वर्ग के लोगों को इकट्ठा किया जाता है. कहानी बड़ी ही दिलचस्प है. आप भी पाकिस्तानी कहानी का लुत्फ उठाएं-
हमारा हीरो वापस करो: असगर नदीम सैयद
अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में विदेश कार्यालय ने पाकिस्तानी दूतावास के उच्च अधिकारी को अपने कार्यालय में तलब किया और अपनी सरकार की ओर से उन्हें आगाह किया कि पाकिस्तान ने बीती रात तालिबान के कथित ठिकानों पर कई रॉकेट लांचर और मिसाइल दागे जिनसे तालिबान का क्या नुकसान हुआ उससे उन्हें कोई मतलब नहीं. एक-दो मिसाइल अफगान सिक्यूरिटी की दो चैकियों पर गिरे जिससे उनके चार जवान मारे गए. इस पर अफगान सरकार सख़्त नाराजगी व्यक्त करती है और चेतावनी देती है कि आइंदा यह हरकत की गई तो उसे अफगानिस्तान पर हमला माना जाएगा. इसके साथ ही एक विरोध पत्र वरिष्ठ अधिकारी के हवाले किया गया जिसपर क्रम से शिकायतें लिखी हुई थीं. उच्च अधिकारी ने जब इसे पढ़ा तो अंतिम बिंदु पर वह चैंके. उन्हें समझ न आया कि अफगान सरकार ने यह बात क्यों लिखी है और अफगान सरकार को इतने दशकों बाद कैसे इस बात का खयाल आया.
इस बिंदु में लिखा था कि पाकिस्तान सरकार आइंदा अपने मिसाइलों के नाम हमारे राष्ट्रीय हीरोज पर रखने से बाज़ रहे. यह एक विडंबना है कि पाकिस्तान सरकार हम पर हमारे हीरोज के नामों के मिसाइल दागे जा रही है. अफगान सरकार को इन मिसाइलों के टुकड़ों को जमा करके मालूम हुआ है कि यह मिसाइल अफगान शासकों के नाम पर रखे गए हैं. यह मिसाइल और रॉकेट लांचर गौरी एक, गौरी दो, गौरी तीन आदि हैं. गजनवी और अब्दाली के नाम से भी हथियार बनाया गया है और हम पर इस्तेमाल हुआ है. उधर सुना है मुहम्मद बिन क़ासिम का नाम भी इसी तरह की युद्ध गतिविधियों में इस्तेमाल हुआ है. पाकिस्तान सरकार को चेतानवी दी जाती है कि वह हमारे हीरोज को इस्तेमाल करने का घिनावना धंधा बंद करे और अपने स्थानीय हीरो तलाश करे. अगर स्थानीय हीरो उपलब्ध न हों तो हमसे बाकायदा सहमति लेकर हमारे हीरोज के नामों को ब्रांड करे और इसकी फीस अदा करे जैसे कारोबारी दुनिया में किसी भी ट्रेडमार्क की फीस अदा की जाती है.
पाकिस्तान के उच्च अधिकारी का माथा ठनका. हालांकि उसके माथे और इंतजार हुसैन के माथे में बहुत अंतर था इसलिए कि माथा ठनकने का लाइसेंस सिर्फ इंतजार हुसैन के पास था.
उच्च अधिकारी ने पत्र प्राप्त किया और अपनी महंगी मर्सडीज़ में वापस दूतावास आया. राजदूत इत्तेफाक से फौज के कोटे से आए थे. विदेश कार्यालय ने रणनीतिक विदेश नीति के तहत विदेश कार्यालय या राजनीतिक कोटे से यहां राजदूत की नियुक्ति नहीं की थी. माननीय राजदूत महोदय को जब उच्च अधिकारी ने पत्र सौंपा तो उसका भी माथा ठनका. उसका कारण देश का अपमान नहीं था बल्कि कारण यह था कि अफगान सरकार ने उसके कबीले को नजरअंदाज किया था. वह असली नस्ली पठान था. दुर्रानी कबीले का प्रतिभाशाली और उत्साही सैन्य अधिकारी था. रंगरूप से रसिक लगता था. बिल्ली आंखें, भूरी मूँछें, गोल्फ का खिलाड़ी और ठीक सात बजे ब्लैक लेबल खोलने वाला दिलदार राजकुमार था.
उसने पत्र देखा और उच्च अधिकारी के सामने फाड़ दिया. उच्च अधिकारी को हिम्मत न हुई कि वह फटा हुआ पत्र उठा लेता क्योंकि वह रिकॉर्ड का हिस्सा था और उसे सरकारी फाइल में बहरहाल लगना था. माननीय राजदूत महोदय ने अपना पैग तैयार किया. दो घूँट लिए और धीमी आवाज में गरजा. अब आप धीमी आवाज में गरजने को नहीं समझ सकते तो मेरा कसूर नहीं है. राजदूत साहब ने उच्च अधिकारी को अपनी आपत्ति दर्ज कराई कि अफगान विदेश मंत्रालय ने कमीनगी और पूर्वाग्रह का प्रदर्शन करते हुए गौरियों, गजनवियों और अब्दालियों को हीरो करार देकर मेरे कबीले की तौहीन की है. इतिहास में नादिर शाह दुर्रानी की बहुत प्रमुख भूमिका है, उसे भी हीरोज में शामिल करना चाहिए था. प्रख्यात हास्य लेखक शफ़ीकुररहमान ने अपने संगीत के हवाले से भी उनकी तारीफ की है. हर हमले के बाद नादिर शाह एक नए राग का आविष्कार करता था जिसे बड़े-बड़े गवैये गाते थे.
“नादिर दिन्ना, नादिर दिन्ना, नादिर दिन्ना, नादिर दिन्ना, नादिर दिन्ना, नादिर दिन्ना दा…”
इस बात पर राजदूत साहब की सिट्टी गुम हो गई, मगर तीसरा पैग पीने के बाद उसकी सिट्टी वापस आ गई. इस पर उच्च अधिकारी की जान में जान बल्कि अमान आई तो राजदूत साहब ने विदेश मंत्रालय के नाम एक नोट लिखवाया जिसमें सारी वारदात लिखवाने के बाद कहा गया कि पाकिस्तान सरकार को इस घटना से सबक सीखना चाहिए और मुल्क के दूतावास को शर्मिंदगी से बचाने के लिए पड़ोसी मुल्कों के हीरोज का इस्तेमाल करने या चुराने से गुरेज करना चाहिए और अगर यह जरूरी हो तो आइंदा नादिर शाह के नाम का मिसाइल भी तैयार किया जाए अन्यथा पाकिस्तान सरकार को एक स्थानीय हीरो मंत्रालय बनानी चाहिए जो स्थानीय हीरो तलाश करके रक्षा मंत्रालय का मार्गदर्शन करे.
उच्च अधिकारी ने रक्षा मंत्रालय के लिए डोज़ियर तैयार किया. डोज़ियर का मतलब बम्बू फिट करना होता है. यह वह खुराक होती है जो किसी भी योग्य मरीज को दी जाती है.
अब विदेश मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय के सरकारी, गैर सरकारी और मीडिया के विश्लेषक सक्रिय हो गए और मिल कर बैठ गए कि आक्रमणकारियों को कब तक हीरो बनायेंगे और इस्तेमाल करेंगे, क्यों न अपने स्थानीय, देसी और पाकिस्तानी हीरो तलाश किए जाएं.
इस संबंध में एक बड़ी कमिटी बनाई गई जिसमें बुद्धिजीवी, इतिहासकार, विश्लेषक और सैन्य विशेषज्ञ शामिल किए गए. उनकी आपातकालीन बैठक बुलाई गई. सत्र प्रारंभ हुआ तो पहला प्रश्न यह था कि गौरी, गजनवी, अब्दाली और दुर्रानी तो पाकिस्तन में आबाद कौमें हैं इसलिए इनको गैरमुल्की कहना तो सरासर ज़्यादती है और अफगान विदेश मंत्रालय को यह हिम्मत कैसे हुई कि वह हमारे हीरोज़ को अपना कहे. इस पर सिविल सोसायटी के एक सदस्य, जो मानव अधिकारों के उल्लंघन के लिए बहुत बदनाम था, ने विनम्रता से कहा कि हुजूर इतिहास भी पढ़ लेनी चाहिए जो स्मरण कराता है कि हिंदुस्तान जिसमें उस वक्त पाकिस्तान भी शामिल था एक ऐसा क्षेत्र था जिसपर कोई भी चढ़ दौड़ता था. ऐसा क्षेत्र जिसके पास हाथी भी थे, घोड़े भी थे और जनता भी थी. लेकिन वह ऐसा वृषण प्रकार का क्षेत्र साबित हुआ कि जो भी अफगानिस्तान के रास्ते हिंदुस्तान में प्रवेश किया उसने मुल्तान तक मार की और यह मुहावरा अस्तित्व में आया कि ‘जिस शासक का मुल्तान मजबूत होगा वही शासन करेगा’. अब ऐसा हुआ कि बाहर से कबीले आते रहे और मामूली से विरोध पर वह हमारे सरों पर बैठते रहे और यहां स्थानीय आबादियों की सुंदर, दिलकश और मामूली रूप वाली लड़कियों से शादियां करके हर शक्ल और हर रंग की नस्लें पैदा करते रहे और एक समय आ गया कि स्थानीय और अफगानी नस्लें घुलमिल गईं. इसलिए अब गौरी, गजनवी, अब्दाली और दुर्रानी वगैरह सब पाकिस्तानी समझी जाएंगी.
एक राष्ट्रवादी और सच्चा देशभक्त पाकिस्तानी सदस्य बोला- फिर भी यह हमारी तौहीन है कि हमारे मिसाइलों के नाम अफगान आक्रांताओं के नामों पर रखे जाएं. कुछ भी हो यह नाम शक्ति के स्रोत के तौर पर ही रखे गए हैं और शक्ति का स्रोत आक्रांता को घोषित नहीं किया जा सकता. शक्ति के स्रोत जनता होती है, इसलिए हमें प्रस्ताव पास करना चाहिए कि मिसाइलों, टैंकों और इस तरह के भारी हथियारों के नाम स्थानीय हीरोज के नामों पर रखे जाएं. जैसे कायद-ए आज़म, कायद-ए मिल्लत, कायद-ए अवाम, कायद-ए जम्हूरियत वगैरह वगैरह, इन नामों पर हमें गौर करना चाहिए.
एक होशियार सैन्य विश्लेषक का माथा ठनका. यह माथा अनवर मकसूद मार्का था. उसने फरमाया, जनाब कायद-ए आज़म को आपने बहुत इस्तेमाल कर लिया है इसे बख़्श दें. कायद-ए आज़म एयरपोर्ट से लेकर कायद-ए आज़म यूनिवर्सिटी तक हम रोजाना बहुत कुछ सहते हैं. जब यह खबर आती है कि कायद-ए आज़म एयरपोर्ट पर तालिबान का हमला हो गया. कायद-ए आज़म एयरपोर्ट पर सैकड़ों मुसाफिर फ्लाइट्स रद्द होने से असहाय हो गए या कायद-ए आज़म यूनिवर्सिटी की कई एकड़ ज़मीन पर लैंड माफिया का कब्जा हो गया तो इस नाम की पवित्रता खतरे में पड़ जाती है. वैसे भी कायद-ए आज़म ज्ञानी नेता थे, धान-पान से सुलह करने वाले नेता थे जो युद्ध को पसंद नहीं करते थे. आप उनके नाम के मिसाइल दागेंगे जिससे इंसान मरेंगे तो कायद-ए आज़म की आत्मा पर क्या गुजरेगी. 1947 ई. के दंगों में लाखों इंसानों की मौत पर कायद-ए आज़म ने इतना अफसोस किया था कि चारपाई से लग गए. पाकिस्तान के एक कोने जियारत में गोशानशीं होकर रह गए. अब रह गए तो कायद-ए मिल्लत जो एक मामूली-सी गोली से ढेर हो गए. उनके नाम का मिसाइल तो रास्ते में ठुस्स होकर रह जाएगा. बाकी रह गया कायद-ए आज़म उसे आपने फाँसी दे दी जो आखिरी जुम्ला यह लिख गया – ‘दर्दां दी मारी दुलड़ी अलील ऐ’.
तो उनके नाम का मिसाइल क्या मतलब देगा. फिर कायद-ए जम्हूरियत का क्या करेंगे जो हुक़्का पीते थे. शेर कहते थे. वोट उनको मिलते नहीं थे. “मार्शल लाऊँ” ने उनको कायद-ए जम्हूरियत बना दिया.
इस बहस में एक स्वतंत्र विचार पत्रकार जो आई.एस.पी.आर. के बहुत काम आता था, इसलिए परामर्श कमिटी में शामिल था. उसने थोड़ा दार्शनिक और थोड़ा बौद्धिक अंदाज अपनाते हुए इस क्षेत्र की सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास पर दस मिनट का लेक्चर दिया जिसमें गांधार, इंडस वैली, हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, मोहम्मद बिन कासिम, राजा दाहर, मेहरगढ़ से लेकर अमीर खुसरो, हज़रत निजामुद्दीन औलिया, बाबा फरीद बहाउद्दीन ज़करिया, शाह लतीफ भटाई तक अनगिनत सूफियों के नाम आए यहां तक कि कबीर और बाबा गुरु नानक को भी मुसलमानों के खाते में पेश कर दिया.
इस पर चेयरमैन कमिटी ने जम्हाई लेते हुए कहा. भाई आप कहना क्या चाहते हैं? इस पर वह साहब जरा सटपटाए मगर फौरन संभल गए और कहने लगे, हमारे सूफी से बढ़ कर कोई देसी हीरो हो ही नहीं सकता. उनके नामों को हम राष्ट्रीय विजय के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, यह इसी धरती के सपूत थे. इस पर एक धार्मिक विचार और इस्लामी इतिहास के जानकार स्तंभकार ने भी हिस्सा लिया और बताया कि हमारी फौज में इस्लामी इतिहास का बहुत अमल दखल है तो क्यों न इस्लामी इतिहास से मदद ली जाए. खालिद बिन वलीद, मोहम्मद बिन कासिम तो हमारे हीरो हैं ही. कुछ और शामिल कर दिए जाएं जैसे तल्हा बिन जुबैर, हस्सान बिन साबित, तारिक बिन ज़ियाद वगैरह वगैरह.
इस पर एक अपेक्षाकृत कमजोर विद्वान और आधे-पत्रकार ने गिरह लगाई कि साहिबो, यह सब नाम आदरणीय हैं मगर डर यह है कि इन नामों की मिसाइल बनाने पर अरब दुनिया से विरोध हो सकता है कि हम उनके हीरो बिना इजाजत के क्यों इस्तेमाल कर रहे हैं. बेशक हम मुसलमान हैं मगर उन हीरोज का ट्रेडमार्क तो उनके पास है, हम इस्तेमाल नहीं कर सकते. अरब दुनिया जब विरोध करेगी तो हम क्या करेंगे.
इसके बाद एक प्रगतिशील और जरा उदार किस्म के विश्लेषक ने चोंच खोली क्योंकि उसका मुंह छोटा था. उसने डरते-डरते कहा, “इस धरती के वो सपूत जो गुलामी के खिलाफ संघर्ष करते हुए अपनी जानें कुर्बान कर गए वह सच्चे बहादुर थे. उनके नामों के मिसाइल बनाने चाहिए.”
एक बूढ़े सैन्य अधिकारी ने ऐनक उतारते हुए कहा, “आप किन लोगों की बात कर रहे हैं. ऐसे किसी बहादुर को तो मैं नहीं जानता. कहीं तुमने सआदत हसन मंटो के अफ़साने तो नहीं पढ़े.”
इस पर वह प्रगतिशील और उदारवादी विश्लेषक ने जवाब दिया कि सर अगर मैं मंटो को पढ़ लेता तो फिर मैं टोबा टेक सिंह के नाम का मिसाइल बनाने की सिफ़ारिश करता या मैं ‘टिटवाल का कुत्ता’ के उस फौजी सिपाही के नाम की मिसाइल बनवाता जो सरहद के उस पार पाकिस्तानी सिपाही की गोली से मर जाता है और पाकिस्तान की सीमा से उसका दोस्त उसे गाली देता है कि ‘अड़े बलवंत सियां तू गालां बहुत कडयां. हन बोलदा क्यों नईं. तू मेतूं गसा क्यों कराया.’ आगे से जवाब न आया. और मेरे पास तो मंटो के कई किरदार थे जिनके नाम ही मिसाइल थे काश आप वह किरदार पढ़ लेते तो हमें स्थानीय हीरो तलाश न करने पड़ते.
प्रगतिशील उदार बुद्धिजीवी जो आई.एस.पी.आर. से प्रभावित था, ने बात काट कर कहा, हमारे बेशुमार हीरो तो हमारे उपन्यासों और कहानियों में हैं लेकिन वह आपको समझ नहीं आ सकते.
अब बीच में किसी सूफी का जिक्र आ गया और किसी ने कहा कि हमारे असली हीरो तो सूफी संत हैं. क्यों ना उनके नामों पर मिसाइल और टैंक बनाए जाएं और अफगानिस्तान की सरकार को इसका जवाब दिया जाए. इस वार्ता में जो नाम सामने आए उनमें खुशहाल खान खटक का भी नाम था. इन सब में एक इतिहास का ज्ञानी भी था. वह फड़क उठा कि वाह, क्या नाम आया है. खुशहाल खान खटक तो बाकायदा जाँबाज और तलवार चलाने के हुनर में अभ्यस्त था लेकिन मानव अधिकारों के एक चैम्पियन ने उसके अरमानों पर ओस डालते हुए कहा. उनकी शायरी तो मुहब्बत से भरी पड़ी है, वह योद्धा नहीं थे सिर्फ युद्ध की कला जानते थे, उसके बाद बहाउद्दीन ज़करिया, दाता गंज बख़्श, रहमान बाबा, वारिस शाह, लतीफ भिटाई और हक बाहू जैसी हस्तियों के नाम सामने आए, सबने उन नामों पर सहमति जताई.
फिर बहस शुरू हुई कि इन में से किन नामों पर किस किस्म के मिसाइल बनाए जाएं. इस पर एक खामोश आधे सरकारी और आधे पत्रकार किस्म के विश्लेषक ने फरीरी ली और बोला कि साहब जो नाम आपने उपमहाद्वीप के सूफियों और वलियों के लिए हैं यह सब इंसाफ पसंद, अमन पसंद और सहनशीलता के ध्वजवाहक थे, जिस कारण इस क्षेत्र में इस्लाम को फैलने का रास्ता मिला, वरना हम सब हिंदू, सिख या ईसाई या शूद्र होते. आप अगर स्थानीय हीरो तलाश करना चाहते हैं तो फिर सुनें- अहमद ख़ान खरल, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, हसन नासिर, अयाज़ शेख़, अमर जलील और बहुत से गणतंत्रता के मतवाले.
इस पर ख़ामोशी छा गई और चेयरमैन ने साफगोई से काम लेते हुए कहा- मुझे इन सब नामों का सिरे से पता ही नहीं. अगर हम किसी नतीजे पर पहुंचना चाहते हैं तो हमारे पास सिर्फ सात दिन हैं. इसलिए नामों को आज शार्टलिस्त करना जरूरी है. चेयरमैन के एक चमचे ने तुरंत हल निकाला कि सर सूफ़िया के नामों पर सहमति बना लें.
ऐसे में इस सत्र में एक आर्मी अफसर अंदर आया और उसने चेयरमैन के सामने एक कागज रखा और चला गया. चेयरमैन ने फख्र से ऐलान किया कि हज़रात अभी खबर आई है कि पाक फौज ने नया मिसाइल बनाया है जो बेमिसाल ख़ूबियों वाला है. दुनिया के किसी मुल्क ने ऐसा परीक्षण नहीं किया है. इसे ‘बाबर थ्री’ का नाम दिया गया है. लो जी तैमूरी खानदान का दीपक जहीरुद्दीन बाबर भी आ गया. प्रगतिशील उदार विचार वाले सदस्य ने इस पर तुरंत प्रतिक्रिया दी.
अब सवाल यह सामने आया कि अफगानों के बाद अब मध्य एशिया के शासकों ने भी पाकिस्तान आर्मी पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है. इस पर एक मानव अधिकार का चैम्पियन चीखा कि यह क्या हो रहा है. पूरी दुनिया में आतंकवाद की लहर में उजबेकिस्तान और चेचीनिया शामिल हैं. उजबेकिस्तान तो बाबर का मुल्क है. अब हम उजबेकों को बाबर थ्री से मारेंगे, या उजबेक हमें कायद-ए आज़म थ्री से मारेंगे, यह फैसला कब होगा? इस पर बूढ़ा खामोश पत्रकार बोला कि वैसे तो मुगलिया खाननदान और खानदान-ए गुलामाँ का असर रसूख अफगानों का ही ऋणी है कि मध्य एशिया से आक्रांता काबुल से ही इधर आते थे और शेरशाह सूरी ने उनके लिए रास्ते बना दिए थे. किसी ने टोका कि यह शोध गलत है. जी.टी. रोड शेरशाह सूरी ने नहीं बनाई लोगों ने बनाई. जो रास्ते कच्ची जमीन पर इंसानों के चलने से बन जाते हैं इसे हम किसी शासक के खाते में नहीं डाल सकते. किसी ने कहा कि हिंदुस्तान ने शेरशाह सूरी के नाम का मिसाइल ‘सूर्या’ बनाया है. एक इतिहासकार ने यह गलतफहमी दूर कर दी कि सूर्या नाम हिंदू माइथॉलोजी से लिया गया है. इस नाम से होटल भी हैं और कई संस्थाएं काम कर रही हैं. फिर भी जब पाकिस्तान की हथियार बनाने वाली फैक्ट्रियों ने ‘बाबर थ्री’ का परीक्षण किया तो पता चला कि बाबर-एक और बाबर-दो भी इसी इतिहास का हिस्सा हैं और बहुत पहले दागे जा चुके हैं. अब तो इस मीटिंग में घुड़मस ही मच गई. स्थानीय हीरोज का मामला तो दूर की बात है, फिर भी, सबके माथे एक साथ ठनके कि पाकिस्तान में सिर्फ अफगानिस्तान ही नहीं मध्य एशिया से भी आक्रांता आए थे. एक समझदार फौजी ने यह मामला सुलझा दिया कि मध्य एशिया से तैमूरी खून और तुर्क नस्ल क़ौमें आईं जिनमें अमीर खुसरो और मिर्ज़ा ग़ालिब भी थे. अब तो मामला बहुत ही गड़बड़ा गया कि असल हिंदुस्तानी कौन है और आक्रांता कौन है. बुरा हुआ अफगान सरकार का जिसने हिंदुस्तान और पाकिस्तान को एक नए चक्कर में डाल दिया. हिंदुस्तान ने तो अपना मामला तय कर लिया था कि 1947 ई. के बाद वह अपने बिछड़े हुए इतिहास से रिश्ता बनाने में कामयाब हो गया और महान अशोक से खुद को जोड़ लिया और फिर हिंदुस्तान को इंतजार हुसैन मिल गया, जिसने उनके इतिहास के रिश्तों को न सिर्फ मालूम किया बल्कि पाकिस्तान के समकालीन स्वभाव के साथ भी जोड़ दिया और यह उन्होंने बिना किसी मुआवज़े के किया. मोदी सरकार का इस पर खर्चा नहीं हुआ क्योंकि माइथॉलोजी एक ऐसा ज़रिया है कि वह सब तरह की वस्तुगत सच्चाइयों पर पर्दे डाल देता है और हम तो गांधार से भी हाथ धो बैठे और अहमद ख़ान खरल से भी. बाकी क्या रह गया… वही आक्रांता. अब तो ‘बाबर-तीन’ का परीक्षण भी हो चुका है, तो ऐसे में देसी हीरोज की कमेटी क्या कर सकती है. आखिर फिर एक आधे जानकार और आधे-विश्लेषक ने फरेरी ली और कहा कि सूफ़ियों के नामों पर समझौता करके प्रस्ताव तैयार करें. इस पर प्रगतिशील उदारवादी ने अपनी पुरानी बात दोहराई कि बहाउद्दीन ज़करिया, ख़ुशहाल ख़टक, हज़रत शहबाज़ क़लंदर और बुल्हे शाह के नाम की मिसाइल बना लें इससे बरकत पैदा होगी. इस पर समझदार रक्षा विशेषज्ञ ने अपनी पहली बात दोहराई कि साहिबो, इन नामों पर पाकिस्तान रेलवे ने गाड़ियों और हमारी यूनिवर्सिटियों के नाम रखे थे जिसका नतीजा यह निकला कि बहाउद्दीन ज़करिया यूनिवर्सिटी में अब तक गबन वगैरह की कई वारदातें हो चुकी हैं, यहां तक कि वाइस चांसलर को हथकड़ियां लग चुकी हैं, रजिस्ट्रार फरार हो चुका है और इसी यूनिवर्सिटी के लाहौर कैम्पस को सरकार के एक चहेते ने अपने नाम करा लिया है. इसी तरह जकरिया एक्सप्रेस कई बार पटरी से उतर चुकी है, कई बार खुशहाल खटक से टकरा चुकी है इसलिए इन बुजुर्गों को माफ करें. अब जो रोल मॉडल रह गए हैं वह तो लेखक और शायर किस्म के लोग हैं. इस पर मीटिंग में एक हलचल पैदा हुई. एक ने कहा फ़ैज़ के नाम की मिसाइल बनाई जा सकती है. वह कर्नल के पद पर रहे हैं. आई.एस.पी.आर. के भेड़िए की नजर रखने वाले ने ऐनक आंखों से हटा कर कहा- “क्या हो गया है आपको, इतिहास को जरा भी नहीं जानते. फ़ैज़ 1952 ई. में रावलपिंडी साज़िश केस के सजायाफ़्ता हैं उनके नाम की मिसाइल तो गद्दारी होगी.”
किसी ने कहा हफीज जालंधरी का नाम उपयुक्त है. उन्होंने राष्ट्रीय गीत लिखा था. दूसरे ने तुनक कर कहा- अरे भाई, अब राष्ट्रीय गीत दुश्मन के मुल्क में फेंकेंगे? फिर किसी ने मुनीर नियाज़ी और नासिर काज़मी का नाम लिया तो सब हँसने लगे कि जनाब जिन शायरों ने यह शेर लिखे हों वह दुश्मन से क्या लड़ सकेंगे:
हमारे घर की दीवारें पे नासिर
उदासी बाल खोले सो रही है
…..
मुनीर इस मुल्क पर आसेब का साया है या क्या है
कि हरकत तेज़तर है और सफ़र आहिस्ता आहिस्ता
किसी ने जॉन एलिया का नाम ले लिया. इस पर तो बहुत हँसी उड़ी और किसी ने कहा जॉन एलिया के नाम की शराब तो बनाई जा सकती है मिसाइल नहीं. इस पर चाय का अंतराल हो गया. जब सब दोबारा जमा हुए तो उनके मुँह लटके हुए थे. वह अपने देसी हीरो तलाश करने में खुद को नाकाम महसूस कर रहे थे. चेयरमैन ने हार मान ली और साझा बयान जारी हुआ कि हमारे अपने हीरो हथियार के नाम के लिए उपयुक्त नहीं हैं. इस तरह सबने हस्ताक्षर किए और वह मामला कार्यालय में जमा हो गया.
उधर अफगानिस्तान में हिंदुस्तान के रक्षा कार्यालय के अफसरों ने एक मीटिंग बुलाई जिसमें ब्लूचिस्तान में अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए व्यापार मार्गों के जरिए कदम जमाने का प्रोग्राम तय कर दिया. इस हवाले से जो पैकेज बनाया गया उसमें सर्वप्रथम था कि अफगानिस्तान अपने हीरो चोरी होने के टेसूए न बहाए. इंडिया उनके हीरोज के नामों के मिसाइल बनाकर उन्हें दे देगा. इस तरह गौरी, गजनवी, अब्दाली, दुर्रानी और बाबर नाम के मिसाइल इंडिया अफगानिस्तान को तैयार करके देने पर राजी हो गया. बदले में भारत को ब्लूचिस्तान तक पहुंचने में अफगानिस्तान मदद करेगा जैसे कभी तालिबान की मदद पाकिस्तान ने की थी.
फिर एक दिन ऐसा हुआ कि अफगानिस्तान में काबुल के विदेश मंत्रालय ने पाकिस्तान के दूतावास के उच्च अधिकारी को तलब किया और एक पत्र हाथ में थमाया कि अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करते हुए पाकिस्तान ने कई मिसाइल सीमावर्ती चौकी पर गिराए जिससे दस तालिबान मारे गए और दो सुरक्षा बल जख़्मी हुए. जो मिसाइल गिराए गए वह गौरी, गजनवी, अब्दाली, दुर्रानी के साथ बाबर नाम के थे. इस पर अफगानिस्तान सरकार गहरा आक्रोश व्यक्त करती है कि पाकिस्तानी सरकार चेतावनी के बावजूद हमारे हीरो तालिबान के दमन के लिए इस्तेमाल कर रही है और बाबर नाम के मिसाइल फेंकने का एक ही मकसद है कि उजबेकिस्तान से और मध्य एशिया से अफगानिस्तान के रिश्ते खराब किए जाएं, यह किसी सूरत बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. पाकिस्तान को अपने मिसाइलों के नाम तुरंत बदलने होंगे वर्ना हम मुकाबला करेंगे.
ठीक उसी रोज इस्लामाबाद में अफगान दूतावास के उच्च अधिकारी को विदेश कार्यालय में तलब किया गया और एक पत्र सौंपा गया कि अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करते हुए मुल्क की सरहद पर अफगान फौजियों ने मिसाइल फेंके हैं जिससे बीस तालिबान मारे गए और एक पाकिस्तानी अधिकारी जख्मी हुआ है. पाकिस्तान सरकार इस पर अपना विरोध दर्ज कराती है कि यह किसी सूरत बर्दाश्त नहीं किया जाएगा कि हमारे हीरोज को हमारे खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा हैं. गौरी, गजनवी, अब्दाली, दुर्रानी और बाबर हमारे हीरो हैं इन नामों के मिसाइल हम पर गिराए गए तो पाकिस्तान सरकार इसे जंग समझेगी.
अफसाना खत्म होता है और बरयख़्त के मशहूर ड्रामे गलेलियो का आखरी हिस्सा सामने आता है. बरयख़्त लिखता है कि जब धार्मिक पंडितों ने गलेलियो को मौत की सज़ा सुना दी तो उसकी बेटी ने रात को आखरी मुलाकात की और बाप से अनुरोध किया कि वह सुबह अदालत में अपने बयान से इनकार कर दे कि जमीन सूरज के गिर्द घूमती है. इससे जमीन सूरज के गिर्द घूमना तो बंद नहीं करेगी अलबत्ता उनकी जान बख़्शी हो जाएगी. अगले दिन गलेलियो ने अपने बयान से इनकार कर दिया और जब वह अदालत की सीढ़ियां उतर रहा था तो उसके शिष्यों ने जो इस इनकार से नाखुश थे इस पर तंज़ किया, ‘अफसोस है उस कौम पर जिसने आज एक हीरो को जन्म नहीं लेने दिया.’
गलेलियो मुड़ा और जवाब दिया कि ‘अफसोस है उस कौम पर जो हर रोज एक नया हीरो मांगती है.’
हमारा इतिहासकार लिखता है कि कल के आक्रांता आज के हीरो बन चुके हैं और तीन मुल्कों की जरूरत पूरी कर रहे हैं.
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FIRST PUBLISHED : December 21, 2023, 17:45 IST